Saturday, November 14, 2015

शिव २ 
सिंधु संस्कृतिमें था तू
तब भी था तू सदहेतु

पशुपति था तेराही रूप
कितनी प्राचीन तेरी धूँप

न हाथ आये आरम्भ अंत
ढुंढ़नेवाला मुर्ख संत

शिव ३ 
क्या मुझे नहीं है पता
भक्त हूँ भक्ति लापता

सारे देव रख दिये तर्कपे
वे भी मर गये हँसते हँसते

 तेरेही पाँवपे हुँआ एकवट
कितनेभी आये चलके संकट

मेरी उथलता कर तू सखोल
वर्ना समझूंगा तू हैं झोल

सार्थक कर ये निरर्थक भक्ती
''समूह '' हूँ मुझे बना दे व्यक्ति

शिव ४ 
तू पशुपति मैं अधोगति 
मारी गयी हैं मेरी मति 

अटका हूँ इसकदर आसक्तिके  बवालमे 
विदौउट वॉटर नाँच रहा  हूँ जालमे 

मेरे पूर्वज थे कभी पणी 
अभीभी कर रहे हैं मनी मनी मनी 

उनको चाहिए ढेर सारा पैसा 
और मैं हूँ कि बना हूँ तेराही भैंसा 

विरासत तेरी मैं नहीं फेकेगा 
तू बोल मुझमे तू कब अवतरेगा 


शिव ५ 
दिलसे तो बहता हैं सिर्फ ख़ून 
ब्रेनमे खिलता हैं भक्तिका जूनून 

इसिलिये चढाता हूँ मस्तिष्क मेरा भेँट 
मस्तिष्कबगैर जीनेकी क़ोशिश करता हूँ नेक 

बिल्लीकीतरह आता हैं रास्तेमें मेरे 
मस्तिष्क रोकता हैं मुक्तिके फेरे 

तू ही बता अब क्या करू उपाय 
गर मैं नही बछड़ा और तू गाय 

नया सालभी फ़िज़ूल गुजर गया 
मुझमेँ मेरा शव फिर मर गया 

श्रीधर तिळवे -नाईक

(डेकॅथलॉन -अनकॅटेगरीकल /मंत्र विभाग  काव्यफाईलसे  )

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